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कविता

ओ.पी.डी.

श्रीप्रकाश शुक्ल


रात पथराती है
दिन थरथराता है

सुबह-सुबह पहुँचने की जल्दी
रात की नींद की गठरी में लपेटे
कुछ इधर बिखरे
कुछ उधर बिखरे
सबसे पहले नंबर पाने की जल्दी

थोड़ा इंतजार
थोड़ा इतमीनान
लगता है गाली समान

जिंदगी भागी जा रही
कैसे लें दम!

सब जगह गम खाओ
गम
इधर आँखें ही आँखें
बचवा की याद में
हो रहीं नम!
अबकी न चूके नंबर ये
पिछला तो चला गया
बिना आए बीत गया!

अधजगा डॉक्टर रात भर सो नहीं पाया है
कल जो बीमार
आया है
आज कहाँ साया है

जिंदगी से जूझते
मौत को पाया है।

धक्का-मुक्की, ठेलम-ठेल, उचक-पुचक, ताक-झाँक
ओ बूढ़े! ऐ! ऐ लड़के!
घिस्स-फिस्स, सिट-पिट,
लातम-जूतम रेलम-पेल

भागो, हटो, हे, अबे
चल-चल
चल बे!

पूछते हैं
कौन सा नंबर आया है
हाथ में लहराते हैं अमरता की पुर्ची
जिंदगी से जूझते मिली
मौत जो अभी-अभी

भीतर से जो आया है
सीना खोल मुस्कुराया है
जूझते-जूझते
जिंदगी जो पाया है।

जोबाहर है
मुरझाया है
पता नहीं नं. भी पाया है
या लम्मर लुटाया है

रात अभी बाकी है
दिन भी गँवाया है।
('ओरहन और अन्य कविताएँ' संग्रह से)


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